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तुम कहो तो

सीतेश आलोक

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1382
आईएसबीएन :81-263-0899-0

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ये कहानियाँ न तो किसी साँचे में ढलकर निकलती हैं और न किसी वाद अथवा पूर्वाग्रह के रंग में रँगकर आती हैं। मनो को छूनेवाली कोई भी घटना,कोई भी परिस्थिति,अवसर पाकर किसी स्मरणीय रचना का रूप ले लेती है।

Tum Kaho To

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साथ

मेरा उत्तर आकाश को नितान्त अप्रत्याशित लगा, यह उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। वह क्षण भर एक अजीब-सी सपाट दृष्टि से मुझे देखता रहा, जैसे मुझे समझने का प्रयत्न कर रहा हो। दूसरे ही क्षण, आँखों में हल्की-सी चमक के साथ, उसके चेहरे पर एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट उभरी और उसने पूछा, ‘क्या दादी आपको बहुत प्यार करती थीं ?’’
‘‘क्यों...’’ मैंने भी मुस्कराकर उसकी आँखों में झाँका, ‘‘हर माँ अपने बेटे को बहुत प्यार करती है।’’
‘‘नहीं मेरा मतलब है कि...क्या आप अपनी माँ को बहुत प्यार करते थे ?’’
‘‘क्यों..’’ मैंने फिर मुस्कराने का प्रयत्न करते हुए कहा, ‘हर बेटा अपनी माँ को...’’
‘‘नहीं, हर बेटा नहीं...’’ उसने मेरी बात बीच में ही काटते हुए कहा, ‘‘करता होगा...पर शायद बहुत नहीं करता। इतना नहीं जितना शायद आप करते थे।’’
कभी-कभी बड़े विचित्र संयोग होते हैं जो बरबस यादों के गलियारे में पीछे, बहुत पीछे खींचते लिये चले जाते हैं। वरना जाने कितने दिन हो गये...दिन नहीं, जाने कितने महीने या बरस कि मैंने माँ को याद नहीं किया था। और आकाश है कि कहता है कि शायद बहुत कम लोग होंगे जो माँ को इतना प्यार करते होंगे जितना कि मैं करता था। मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि मैं यह भी नहीं जानता कि प्रेम क्या होता है मैं यह भी नहीं जानता कि प्रेम क्या होता है। और फिर माँ को, क्या मैं सचमुच प्यार करता था ? उन्हें प्यार करता होता तो क्या इस तरह उन्हें चला जाने देता...? चुपचाप, अनजान बनकर, ऐसे आँखें मूँदे पड़ा रहता जैसे कहीं कुछ हो ही नहीं रहा है।
...और माँ ? माँ के प्यार को भी क्या कहूँ ! क्षण-भर में ही उसने निर्णय ले लिया कि उसे जाना है...सारे बन्धन तोड़कर, मुझे भुलाकर, मुझे छोड़कर दूर...बहुत दूर चले जाना है-और वह चली गयी।
कितने प्रश्नचिह्न लगा गयी वह एक घटना...कितना कुछ सोचने को दे गयी। जाने कितनी रातें मैंने रोते, करवट बदलते, अपने को कोसते और धिक्कारते हुए बितायी थीं। जाने कितनी बार माँ से पूछने का मन हुआ था...रोकर, मचलकर उनसे पूछने का, यह जानते हुए भी कि उत्तर देने के लिए वह आसपास कहीं नहीं हैं।

अकसर यही लगता था कि कोई प्यार करने वाला भला दूर जाने की बात भी कैसे सोच सकता है ? भला मैंने आकाश को इतना जोर देकर, इतना मजबूर करके क्यों बुलाया ? क्या कमी थी मुझे ? वह मुझे हर महीने दस हजार रुपये भेज रहा था- जिसमें मैं, दो नौकरों के साथ बड़ी सुविधा से रह सकता था। इसलिए न कि वह मेरा बेटा है और मैं उसे प्यार करता हूँ,...मैं उससे दूर नहीं रहना चाहता था...उससे दूर रहने की कल्पना से भी सिहर उठता था। और फिर वह अमरीका छोड़कर क्यों आया ? इतनी अच्छी लगी लगाई नौकरी छोड़कर ! इसीलिए न, कि वह भी मेरे साथ रहना चाहता था। क्योंकि वह भी मुझसे प्यार करता है। मुझे दुःखी नहीं देखना चाहता
लेकिन नहीं...कभी-कभी मुझे यह भी लगा है कि मात्र पा लेना ही प्यार नहीं है...साथ रह लेना ही प्यार नहीं। कम-से-कम माँ के जाने के बाद से यह बात रह-रहकर मन में उठती रही है।
परिस्थितियाँ कभी-कभी बड़ी विचित्र उलझन में डाल देती हैं। बुद्धि कहीं कोई निर्णय ले ही नहीं पाती। लगता है जैसे कोई और है जो बुद्धि को कोई निर्णय लेने के लिए विवश कर रहा है....और फिर बाद में रह-रहकर यह लगता है कि निर्णय न लेकर कोई दूसरा विकल्प अपनाया होता तो अच्छा होता।
परन्तु वह निर्णय मैंने लिया ही कहाँ था ! वह तो माँ का निर्णय था...नितान्त उनका अपना निर्णय। ठण्डे मस्तिष्क से, सोच-समझकर लिया हुआ निर्णय...जिसके विषय में शायद उन्होंने कभी किसी से कोई परामर्श नहीं लिया। अपनी समझ भर, मुझे तो उनकी भनक भी नहीं पड़ने दी ।
लेकिन क्या अन्तर पड़ता ? यदि उन्होंने मुझसे परामर्श लिया भी होता तो मैं इससे अधिक सुलझा हुआ निर्णय भला ले भी क्या सकता था। अपनी उलझन में निर्णय अधिक से अधिक यही करता न कि उनका हाथ पकड़कर, उन्हें समझाते हुए, आँखों में आँसू भरकर, बार-बार उनसे अपना निर्णय बदलने के लिए कहता। पर क्या कुछ था मेरे पास, विकल्प के रूप में उन्हें देने के लिए ?
क्षण-भर में ही यादों के कैसे बीहड़ जंगल में भटक आया मैं !
आकाश की आँखें अब भी मुझ पर टिकी हैं....नहीं, अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए नहीं, शायद मात्र इस जिज्ञासा में कि मुझे और कोई नाम क्यों नहीं सूझा।
हो सकता है कि मुझसे पूछना उसकी ओर से मात्र एक औपचारिकता रही हो। या कौन जाने वह उत्तर में अपनी माँ का नाम सुनना चाहता हो। उसकी माँ...जो मेरी पत्नी भी थी। पत्नी, यानी जीवनसंगिनी।
मैं स्वयं सहज होने के प्रयास से उसकी ओर देखकर मुस्कराता हूँ। वह भी मुस्कराता है, शायद मात्र इसलिए कि वह नहीं जानता कि क्या कहे। वह एक अच्छा लड़का है...मेरा मतलब, एक अच्छा बेटा। एक अच्छा सर्जन होन के बावजूद मेरे ज़ख़्म कुरेदने से कतरा रहा है। कौन जाने कि वह सोचता हो कि कुछ ज़ख़्म ऐसे भी होते हैं जिन्हें समय ही भर सकता है। शायद एक सर्जन होने के नाते भी उसे पता हो कि एक ज़ख़्म का इलाज शल्य-चिकित्सा नहीं होता।
पता नहीं मेरा दुःख किस श्रेणी में आता है। इसे चुपचाप अपने मन में ढ़ोते हुए अठारह वर्ष तो बीत ही चुके हैं। समय अब तक तो उसे भर नहीं पाया। समय की परिभाषा में अठारह वर्ष कुछ अर्थ तो रखते ही होंगे ! कौन जाने, शल्य-चिकित्सा और कोई उपयुक्त मरहम ही उसका इलाज हो ! परन्तु यह आवश्यक तो नहीं कि दस वर्ष अमरीका में रहकर, आधुनिक उपकरणों से शल्य-चिकित्सा करने वाला, मन की पीड़ा से भी मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखता हो।

मैंने चाहा तो था...कई बार चाहा था कि कभी कोई मिले जिसके सामने मैं अपना मन खोलकर रख सकूँ। जिसके आगे मैं अपना अपराध बोध स्वीकार करके अपने मन को हल्का कर सकूँ, पर कभी कोई ऐसा विश्वासपात्र नहीं मिल पाया। वैसे तो कामना थी मेरे साथ...मेरी जीवन-संगिनी, मेरे सुख-दुःख की साथी। लेकिन उसके अपने सपने थे, अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ थीं। उसके पास इतना समय नहीं था जिसे वह भावुकता में गँवाए। वह व्यावहारिक थी और उसे यह भी पता था जिसे उसके सपनों को आकार देना मेरा कर्तव्य है। उसके सपने बड़े ठोस धरातल पर टिके होते थे और मात्र उस तक सीमित रहते थे...जहाँ वह शान से रह सके, जहाँ उसका बेटा उन्नति कर सके, जहाँ मैं सुख से रह सकूँ। मेरी दुखती रगों पर मरहम रखने के नाम पर उसने मुझे, बड़े प्यार से, बस इतना समझाया था कि इतने बड़े होकर माँ को लेकर आँसू बहाना, दुःखी रहना मुझे शोभा नहीं देता और यदि कभी वह बहुत ही सहानुभूति की मनःस्थिति में हुई तो कह देती थी कि माँ की आत्मा को शान्ति देने के लिए भी मुझे खुश रहना चाहिए...
क्या मैं यह नहीं जानता कि माँ ने जो कुछ किया वह मेरी खुशी के लिए किया। मेरी खुशी के लिए, क्योंकि वह मुझे प्यार करती थीं। नहीं शायद मात्र मेरी खुशी के लिए नहीं...हम सबकी खुशी के लिए, हम सबकी खुशी, जिसमें कामना की खुशी भी शामिल थी और आकाश की भी और पिता की भी....और शायद स्वयं उनकी भी। कितना विशाल हृदय था माँ का... और कितनी सूझबूझ थी उनके प्रेम में, सोचकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन मैं...? कितना बेबस था स्वयं अपनी परिस्थितियों के आगे, कि जानते-बूझते हुए भी कुछ कर नहीं पाया। न तो माँ को रोक पाया और न उनके सीने पर सिर रखकर यह कह ही पाया कि मैं जानता हूँ माँ ! तुम जो कर रही हो, ठीक कर रही हो। जो तुम कर रही हो, वह शायद तुम्हीं कर सकती हो....बस तुम्हीं। चुपचाप, आनेवाली स्थिति से अनजान बना हुआ, मैं माँ से विदा लेकर लौट आया था...और अपने को निरन्तर धिक्कारने और अपने आप पर तरस खाने के बावजूद कुछ ही देर में मुझे नींद आ गयी।
अब तो वह सब सपना जैसा लगता है। पिता जी सुन्दर चाचा के यहाँ गये थे...सुन्दर चाचा, यानी पिताजी के बचपन के दोस्त। उनके बेटे का विवाह था। वे अकेले ही गये। वहाँ उन्हें बुखा़र आ गया। उनका इलाज कराया गया...पर बुखा़र था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। बारह दिन बाद, समाचार पाकर मैं उन्हें लेने गया। सहसा देखकर उन्हें पहचान पाना कठिन लगा। उनका उजला रंग अचानक काला पड़ गया था। मुझे देखकर वह मुस्कराते हुए बोले थे, ‘‘इधर कुछ ठण्ड ज्यादा लगती रही, सो धूप में बैठा रहता था। उसी से लगता है कि रंग दब गया...’’
मैं देख सकता था कि बात रंगत दबने भर की नहीं थी- उनकी रंगत बिलकुल ही बदल गयी थी। पूछने पर पता चला कि बुख़ार भी कोई ज्यादा नहीं रहा... एक सौ या एक सौ दो, इसी के आसपास। डॉक्टर को पहले ही फ़्लू का सक था फिर मलेरिया की दवा देकर भी देखा टायफ़ाइड की जाँच भी कर देखी। कहीं कोई ख़ास बात नजर नहीं आयी। डॉक्टर भी शहर के जाने-माने, भरोसेवाले थे। इधर उन्होंने दवा फिर बदली थी और उन्हें विश्वास था कि बुख़ार दो चार दिन में का़बू में आ जाएगा।

घर वापस लाकर उनका इलाज नये सिरे से शुरू हुआ । तरह-तरह की जाँच हुई। कभी एक्स-रे, तो कभी ख़ून की जाँच, तो कभी ई. ई. जी और कभी कोई कल्चर। मेरे लिए तो तब वे सब नये-नये नाम थे और हर टैस्ट की फ़ीस के रूप में एक मोटी रक़म देकर मन में यह विश्वास उभरता था कि हो-न-हो, अच्छे-से-अच्छा इलाज हो रहा है। दो-तीन सप्ताह के उपचार के बाद उनके बुख़ार पर प्रभाव दिखाई दिया...वह घटकर निन्यानवे-सौ के आसपास रहने लगा। वे कभी-कभी कुछ खाने भी लगे, पर सर्दी की शिकायत कुछ बढ़ गयी थी। नवम्बर के महीने में जहाँ और सब एक स्वेटर में भी कुछ गर्मी महसूस करते थे, पिताजी स्वेटर के ऊपर बन्द गलेवाला कोट पहनकर, कम्बल ओढ़कर बैठते थे उसमें भी कभी-कभी कँपकँपी की शिकायत करते रहते थे।
वे अकसर धूप में ही बैठे रहते थे। माँ भी उनके पास ही कोई छाया ढूँढ़कर बैठ जाती थीं। एक दिन अचानक पास से निकलते समय मैंने माँ को कहते सुना था, ‘‘अब ये तुम्हारी उमर है क्या कहीं अकेले आने-जाने की ? लेकिन तुम मानते कहाँ हो...’’
कुछ रुककर पिताजी धीरे से बोले थे, ‘‘तुम चला करो न साथ में...अकेले जाना मुझे ही कौन अच्छा लगता है।’’
मैंने देखा चावल बीनती हुई माँ की उँगलियाँ थमीं और उनके चेहरे पर लालिमा तैर गयी। उन्होंने मुस्कराते हुए दृष्टि उठाकर कहा था, ‘‘अरे अब आराम किया करो। ज़रूरत क्या है मारे-मारे फिरने की ?’’
‘‘कभी तो जाना ही पड़ता है...’’ मुझे अब याद पड़ता है कि उनके श्वर में कुछ दार्शनिकता थी...या कौन जाने कोई भविष्य का कोई संकेत।
माँ का काम बढ़ गया था। हरदम घड़ी पर नजर रखते हुए समय-समय पर पिताजी को तरह-तरह की दवाएँ देना और ज़िद कर-करके कुछ खाने को देते रहना।
कभी उनके पैर दबाना और कभी सिर में तेल लगाकर कंघी करना। अकसर वे याद कर-करके पिताजी की पसन्द की चीज़ें मँगाती थीं और अपने हाथ से बनाकर उनके पास ले जाती थीं, मगर उन्हें तो जैसे हर चीज़ से अरुची होती जा रही थी।
इस प्रकार दस-बारह दिन बीते होंगे कि एक झटका और लगा। उन्हें कँपकँपी के ज़बरदस्त दौरे पड़ने लगे। ठीक-ठाक बैठे, बातें करते-करते, अचानक वे कहते थे कि सर्दी लग रही है और दस्ताने पहनते, गले में मफ़लर बाँधते-बाँधते वे बुरी तरह काँपने लगते थे। उनको बिस्तर पर लिटाकर कम्बल और लिहाफ़ उढ़ाने पर भी वह कँपकँपी बन्द नहीं होती थी। एक-एक करके घर-भर के लिहाफ उन पर डाले जाते थे, गरम पानी की बोतल भी उन्हें दी जाती थी, मगर पाँच-दस मिनट में ही उनकी काँपती देह से वह सारा बोझ किसी भूकम्प की तरह हिलता दिखाई देने लगता था और उसके नीचे से काँपने-कराहने का एक विचित्र-सा मिलाजुला स्वर लगातार आता रहता। उस समय हम सबकी बुद्धि साथ छोड़ देती थी। माँ उन कपड़ों के ढेर के नीचे हाथ डालकर कभी उनके पैर मलती थीं तो कभी हाथ। उनकी व्यस्तता के नीचे उनकी आँखों से आँसू टपकते रहते थे।

यह स्थिति कभी घण्टे-डेढ़ घण्टे तक चलती थी और कभी तीन चार घण्टे भी। उसका कोई क्रम भी पकड़ में नहीं आ रहा था। कभी तो यह दौरा तीन-चार दिन बाद पड़ता था और कभी रोज़। डॉक्टर इसका कोई कारण नहीं पकड़ पा रहे थे। उनका अनुमान था कि इस तेज दवा की प्रतिक्रिया हो सकती है...या कोई और, खाने-पीने की चीजों में कोई तत्व हो सकता है जो उन्हें ‘सूट’ नहीं कर रहा है। उन्होंने अपने सन्तोष के लिए फिर वे सब टेस्ट कराये-कई नये टेस्ट भी। और फिर बारी आयी स्पैशलिस्ट की। आये दिन कोई-न-कोई नया डॉक्टर या वैद्य या कोई हकीम उन्हें देखने आता था और कुछ नये ‘आज़माये’ हुए और ‘शर्तिया’ नुस्खे बता जाता था।
डॉक्टरों की सलाह पर पिताजी को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। कहते हैं कि घर का कोई एक व्यक्ति अस्पताल में पड़ा हो तो सारा घर बीमार पड़ जाता है। ऐसी ही स्थिति हम सबकी हो गयी थी। सारी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गयी। अस्पताल के चक्कर, कभी दवाएँ लाने के लिए भागदौड़, वहाँ हर समय किसी-न-किसी की डयूटी, रात में किसी-न-किसी के वहाँ रहने की व्यवस्था..और भी न जाने क्या-क्या। हम सभी पर एक अतिरिक्त बोझ आ गया था...लेकिन उस अतिरिक्त बोझ का एक बहुत बड़ा भाग माँ ने अपने कन्धों पर ले रखा था। मैं कभी दफ़्तर देर से जाता था और तो कभी जल्दी लौटता था और कभी कोई अवश्यकता आ पड़ी तो दिन में भी दो-चार घण्टे के लिए उठ आता था। आकाश भी यथासम्भव भागदौड़ कर रहा था-तब वह सत्रह-अठारह साल का रहा होगा और मैडिकल के लिए तैयारी कर रहा था।
बोझ कामना पर भी आया था...कुछ इस कारण भी कि पहले जो कुछ घर का काम माँ करती थीं वह सब भी उस पर ही आ पड़ा था। लेकिन काम के बोझ से बढ़कर, इलाज पर होने वाला व्यय उसे कचोटता लग रहा था। ऐसा नहीं कि व्यय की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया हो...परन्तु कामना की व्यावहारिकता का दंश मुझे यदाकदा आहत कर देता था।
‘‘ऐसे ही चला तो आकाश की डॉक्टरी तो समझो गयी...’’ एक बार चाय पीते समय मुँह से यह सुनकर मुझे लगा था जैसे मैं कोई बहुत कड़वा घूँट पी रहा हूँ।
ऐसा नहीं कि आकाश के भविष्य की मुझे कोई चिन्ता नहीं थी और फिर जो भी हो, जैसे भी हो, उसकी पढ़ाई का व्यय तो मुझे ही उठाना था...और यह भी नहीं कि मुझे ही पता न हो कि कितना व्यय हो रहा है। सच कहूँ तो पैसा पानी की तरह बहने का अर्थ मुझे उन्हीं दिनों समझ में आया था। दूसरी ओर पिताजी के इलाज का उत्तरदायित्व भी मुझ पर ही था...। मात्र एक बेटे के नाते नहीं, एक कृतज्ञ व्यक्ति के नाते भी। अपनी जीवन भर की बचत उन्होंने एक घर बनवाने में लगा दी थी...वह घर जिसमें हम लोग रह रहे थे। मेरे मन में आया भी था कि मैं कामना को यह तर्क दूँ कि इतने वर्षों से बिना किराये के जो हम रह रहे हैं, वह भी तो कोई अर्थ रखता है। पर मैं कामना की व्यावहारिकता से डरता था मुझे डर था कि मैं तर्क-कुतर्क के जाल में न उलझ जाऊँ ! मुझे सन्देह था इस सम्भावना को ध्यान में रखते हुए उसने पहले ही कुछ तर्क जोड़ रखे होंगे-और फिर पारस्परिक उपयोगों का लेखा-जोखा हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने देगा। उस गणित में कभी हम माँ के दूध की कीमत लगाने लगेंगे और कभी अस्पताल में तीमारदारी के लिए बितायी हुई एक रात की।
रात को अस्पताल में माँ ही रहती थीं और सुबह दस बजे के लगभग कामना के वहाँ पहुँचने पर वे बस चार-पाँच घण्टे के लिए घर आती थीं, जिसमें लगभग एक घण्टा तक तो घर तक आने जाने में लग जाता होगा। फिर उनका स्नान, पूजा और जल्दी से कुछ खाना। साथ ही वे कुछ-न-कुछ पिताजी के लिए बनाकर भी ले जाती थीं-भले ही वे खाएँ या न खाएँ। अकसर तो यही होता था कि वे उनके लिए बनाकर लायी हुई वह विशेष चीज, उन पर उतार कर किसी को दान कर देती थीं या किसी गाय के आगे डलवा देती थीं।

कामना दिन में कम-से-कम दो बार तो माँ से मिलती ही थी-सुबह अस्पताल जाकर उन्हें घर भेजते समय और दोपहर बाद उनके लौटते समय पर, मुझे डर लगता था कि इस छोटी सी अवधि में कहीं वह जाने अनजाने, ऐसा कुछ न कह बैठे जो माँ के आहत मन को और भी दुखा दे। पर परिस्थितियों के कारण, मैं उसे माँ से मिलने से रोक भी तो नहीं सकता था।
अस्पताल की अँग्रेज़ी दवाइयों के साथ ही और भी न जाने कितनी तरह के इलाज चलते रहते थे। उन्हीं में कहीं किसी ज्योतिषी ने महामृत्युंजय के जाप का भी सुझाव दिया। पार उतरने के लिए हर तिनके को पकड़ने के लिए आतुर माँ ने स्वयं ही वह दायित्व अपने ऊपर ओढ़ लिया। कुछ पैसे लेकर कोई पण्डित भी वह जाप करने को तैयार थे, परन्तु माँ का तर्क था कि जो फल अपने आप किये का होता है वह भाड़े के पुजारी के माध्यम से भला कहाँ मिलेगा !
‘‘अरे सवा लाख की ही तो बात है....बारह सौ माला हुई, न ! मैं बैठी-बैठी कर लूँगी’’ उन्होंने ऐसा कहा था जैसे उन्हें और कोई काम ही क्या है। मैं जानता था कि इसमें उनके खाने का समय कटेगा और सोने का समय कम होगा...जो पहले ही कम है। मुझे एक अव्यक्त आशंका भी हुई थी कहीं ऐसा तो नहीं कि कामना ने कभी उनके आगे अस्पताल के व्यय की बात चलायी हो । कितना असहाय पाया था मैंने उस समय अपने आप को। न तो माँ से उस विषय में कुछ पूछ सकता था और न कामना से। बस चुपचाप, मन-ही-मन यह मान सकता था कि काश, ऐसा कुछ न हुआ हो।
अठारह दिन तक तरह-तरह के टैस्ट कराने का बाद, अस्पताल के डॉक्टरों ने पिताजी को वापस घर ले जाने की सलाह दी। कोई निश्चित रोग न पकड़ पाने की स्थित में और उस समय तक उपलब्ध सभी दवाओं की असफलता को देखते हुए डक्टरों का अनुमान था कि उन्हें कैंसर है। कैंसर...यानी एक लाइलाज रोग जिसमें रोगी के लिए तब तक कष्ट अनिवार्य था, जब तक प्राण उसके शरीर को स्वयं ही मुक्ति नहीं देते। डॉक्टरों का यह निदान मैंने माँ को नहीं बताया...किसी डॉक्टर को भी नहीं बताने दिया...पर माँ के मन ने, जाने कैसे, वह सब जान लिया था।
घर आने के बाद भी स्थिति में कोई बहुत अन्तर नहीं आया था। अस्पताल में कमरे के किराये की जगह डॉक्टरों की विजिट का व्यय बढ़ गया और माँ के अस्पताल आने-जाने के बदले उनकी पूजा का समय बढ़ गया।
उन्हीं दिनों कामना की एक ममेरी बहन का विवाह आ पड़ा। कामना का कहना था कि उसका विवाह में जाना बहुत ही जरूरी था-मामा के घर का यह अन्तिम मांगलिक उत्सव था, मामा उसे बेटी की तरह मानते रहे और उनकी बेटी उसे अपनी माँ जितना ही प्यार करती थी। उसका कहना तो था कि चाहे दो दिन के लिए ही सही, मुझे भी चलना चाहिए। पर मुझे लगा था कि उसकी समझ एक बहुत बड़ा तूफा़न ख़ड़ा कर सकती है। तभी बीच में माँ ने ही सब सँभाल लिया, ‘‘अरे हो आने दे बेटा ! इतने दिन से बीमारी-हारी देखते-देखते थक गयी होगी। कुछ दिन हँसी-ख़ुशी से बिता आए...फिर लौट के तो सब कुछ उसी को सँभालना है।’’
डॉक्टरों की बात सुनकर साहसा मेरा सर थरथरा उठा था...जैसे मेरा सर कचहरी या कोतवाली में टँगा कोई बड़ा पीतल का घण्टा हो, जिस पर चौकीदार ने अभी-अभी रात के एक बजे का ऐलान किया हो।
‘‘क्या कहा माँ ने ?’’ मैंने जैसे तैसे पूछा था।

‘‘कोई ऐसी चीज़ माँग रही थीं, जो एक डॉक्टर नहीं दे सकता। यू नो ! डॉक्टर का काम तो दवा देना है...वह आखि़री समय तक मौत से लड़ता है।’’ डॉक्टरों ने मुझ पर एक समझाती हुई, बुजु़र्गाना दृष्टि डालते हुए कहा, ‘‘वह कुछ ज़्यादा ही ‘अपसैट’ लगती हैं...‘नेचुरल’ भी है। लेकिन पति के लिए कोई ऐसा कैसे सोच सकता है।’’
मैंने चाय बनाकर प्याला माँ की ओर बढ़ाया...लेकिन उन्होंने मना कर दिया। जाप से पहले वह कुछ भी नहीं लेती थीं।
‘‘जाप से कोई लाभ होता तो दिख नहीं रहा है...’’ मैंने ऐसे ही कह दिया। आज सोचता हूँ तो लगता है मुझे उस विषय में कुछ कहना नहीं चाहिए था।
क्षण-भर को उनकी आँखें कहीं शून्य में टिक गयीं। फिर मेरी ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘होगा, बेटा ! ज़रूर होगा। मन्त्रों में बड़ी शक्ति होती है। मैं जानती हूँ कि मैं जाप न कर रही होती तो कितनी बेहाल होती। और फिर जो होना है वह तो ईश्वर के अधीन है। मन्त्र कोई अमरत्व तो नहीं देता....महामृत्युंजय मन्त्र अमरत्व के लिए नहीं होता । उसमें भी बस यह कहा गया है कि यथासमय, शरीर बिना कष्ट पाए ऐसे छूटे जैसे पक जाने पर ककड़ी अपनी बेल से मुक्त हो जाती है।’’
उन्होंने ऐसे सन्तुलित शब्दों में अपना विश्वास व्यक्त कर दिया था कि फिर कुछ पूछने को, कहने को रह ही नहीं गया। मैं चाहकर भी उनसे यह नहीं पूछ सका कि उन्होंने डॉक्टर से क्या माँगा था, और क्यों.... एक दिन अचानक घर में धुएँ की गन्ध पाकर पता चला कि माँ ने घर में काम करनेवाली से एक कोयले की अँगीठी मँगवायी थी। ‘‘सर्दी बढ़ रही है...रात बेरात ज़रूरत पड़ जाए तो अँगीठी ही ठीक रहती है। शायद इसका सेक तुम्हारे पिताजी को अच्छा लगे।’’ देर रात गये, सोने से पहले वे अँगीठी कमरे से बाहर रखवा देती थीं।
बात आयी-गयी हो गयी थी।
इस बीच पिताजी के कँपकँपी के दौर बढ़ते रहे। परन्तु माँ के चेहरे पर एक नितान्त निर्जीव शान्ति दिखाई देती रही। कभी-कभी मैं डर जाता था कि वे दुःखी क्यों नहीं दिखाई देतीं...? व्याकुल होकर आँसू क्यों नहीं बहातीं...?
कामना लौटी तो माँ बड़ी देर रात तक उसके पास बैठी बातें करती रहीं। लो, अब सँभालो अपनी गृहस्थी...अब यह सब देखना मेरे बस का नहीं रहा।
आकाश भी वहीं आ बैठा। माँ ने उसे बहुत बड़ा डॉक्टर बनने का आशीष देते हुए कहा, ‘‘बहुत जल्दी कर दी इन्होंने....थोड़ा ठहरकर बीमार पड़ते तो हमारा बेटा दो दिन में ही उन्हें ठीक कर देता।’’
कुछ देर आपस में हँसते बतियाते हम लोग क्षण-भर को जैसे भूल ही गये थे कि हमारा परिवार एक बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है। लेकिन तभी पिताजी के कराहने के हृदय-विदारक स्वर ने हमें यथार्थ की ओर खींच लिया। माँ अपने कमरे की ओर दौड़ीं...हम सब उनके पीछे चले। लगभग तीन घण्टे बाद उनकी कँपकँपी में कुछ कमी आयी तो माँ ने आग्रह करके सबको खाने के लिए भेजा। तभी मैंने एक अनहोनी बात देखी थी...माँ की आँखों में आँसू थे। उन्होंने कहा, ‘‘जाओ, इन्हें अब आराम आ जाएगा। कोई चिन्ता न करो। जाओ, सो जाओ। सब ठीक हो जाएगा।’’

सोने से पहले, पूजा की कोठरी में आहट से मुझे लगा था कि माँ वहाँ हैं, कुछ देर बाद वे मेरे कमरे में भी आयीं। धीरे से उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेरा। मैं फिर भी आँखें मूँदे ही चुपचाप पड़ा रहा...पता नहीं क्यों ! रात बहुत हो चुकी थी शायद मैं सोच नहीं पा रहा था कि क्या करना उचित होगा। मुझे क्या करना चाहिए ! परन्तु मैं किसी निष्कर्ष तक पहुँचूँ, इससे पहले ही वे जा चुकी थीं।
सुबह जो सामने आया, वह सभी के लिए अप्रत्याशित था। माँ और पिताजी, दोनों ही एक दूसरे की बाहों में निष्प्राण पड़े मिले। उनके कमरे की सभी खिड़कियाँ बन्द थीं और उसमें अँगीठी का धुआँ भरा हुआ था।
सहसा वह दृश्य देखकर मुझे रोना नहीं आया, मन में कहीं कोई आतंक भी नहीं हुआ...बस वह घटना याद आयी जब पिताजी के बीमार होकर लौटने के बाद माँ ने कहा था, ‘‘ये क्या तुम्हारे कहीं अकेले जाने की उमर है....!’’
तब भला कौन सोच सकता था कि पिता जी को उनके कष्ट से मुक्ति दिलाकर, उनका साथ देने के लिए, माँ मोह-ममता सारे बन्धन तोड़ स्वयं ही उनके साथ हो लेंगी।
परन्तु दूसरे ही क्षण, यह याद करके कि माँ हम सबको मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक संकटों से मुक्ति देकर गयी हैं-मेरी आँखों का बाँध टूट पड़ा था। मुझे सान्त्वना देने के लिए मेरे कन्धे पर कामना का हाथ पड़ा तो मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में दुःख अथवा सान्त्वना से कहीं अधिक उसी वर्जना का संकेत था, ‘‘इतने बड़े होकर रोना-धोना और आँसू बहाना तुम्हें शोभा नहीं देता है।’’ क्षण-भर को मुझे लगा था कि यदि मैं कोई सिद्ध ऋषि होता तो हाथ में जल लेकर उसे शाप दे देता, ‘‘जा ! विधवा होकर, तीस बर्ष तक बहू के आश्रय में रह...’’
तरह-तरह की बातें सुनने को मिल रही थीं। किसी ने कहा कि सती थी, हँसती-खेलती साथ चली गयी। कोई आश्चर्यचकित था कि इतना बड़ा पाप कर डाला पति की जान ले ली। कोई कहता था कि घबरा गयी थी कष्ट सहते-सहते...
डॉक्टर ने सहानुभूति से मेरी पीठ थपथपाते हुए ‘दुर्घटना द्वारा मृत्यु’ का प्रमाण-पत्र दे दिया था।
घटनाओं-दुर्घटनाओं को पीछे छोड़ता हुआ समय तो दौड़ता ही रहता है। आकाश ने मैडिकल की पढ़ाई पूरी करके, परिवार सहित अमरीका जाकर, वहाँ लगभग दस वर्ष तक काम किया। इस बीच कामना का एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हुआ। आकाश ने मुझे अमरीका ले जाने का प्रयत्न किया परन्तु मेरी हठ पर, हारकर स्वयं, स्वदेश आने का निर्णय लिया। घर में बहू और बच्चों के आने-जाने से मुझे ज़िन्दगी फिर जीने लायक लगने लगी थी। आकाश ने स्वयं अपना नर्सिंग होम खोलने की योजना बनायी...और जब उसके नाम के लिए उसने मुझसे सलाह ली तो माँ का नाम ही मेरे सामने आया। मुझे उत्तर देने में देर नहीं लगी, ‘‘मंगला...’’ मैंने कहा, ‘‘मंगला उपचार गृह...’’
उसे कुछ सोचते देखकर क्षण-भर को मुझे लगा कि अपना दृष्टिकोण थोपने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। मैंने कहा ! लेकिन बेटे ! अगर तुम्हें और कोई नाम अधिक अच्छा लगे तो तुम वही रख लो। मुझे बुरा नहीं लगेगा।’’
उसकी आँखों में फिर एक मुस्कान तैर गयी...एक बिलकुल अनोखी-सी मुस्कान। कुछ वैसी, जैसी कि किसी पिता की आँखों में उभरती है, अपने बेटे की पीठ प्यार से थपथपाते समय। उसने कहा, ‘‘नहीं डैडी ! मंगला ही ठीक है...बड़ा अच्छा नाम है।’’

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